रविवार, 19 जुलाई 2015

सपने होते हैं 
कभी देखे नहीं 
शायद आस्था जैसा कुछ 
या बिलकुल वैसे, जैसे 
खेतों में फसल पक जाने के बाद 
छूते हैं उनको बोने वाले हाथ
या नौ माह के बाद
एक नवजात को पकडे हाथ
सपने प्रश्न होते हैं
कभी उत्तर नहीं
शायद जीवन की त्वरा जैसा कुछ
या बिलकुल वैसे, जैसे
अँधेरी खोह में रहते हुए
अचानक रौशनी में चौधियाएं आँखेँ
या आखिरी साँसें उखड़ने से पहले
पसीने से लतपथ चहरे पर आँखें
सपनों के मूर्त रूप नहीं
उनका एक माया जाल है
शायद जिनमें जीवन जैसा कुछ
क्योंकि इनके बाद ही
ज़िन्दग़ी के धुंधले पड़ते रंग
अपनी पहचान पक्का करते हैं
दरसअल सपने अमानवीय समय में
एक मानवीय रचना हैं .//// smile emoticon
मैं बहुत बार लौटना चाहता हूँ 
बहुत बार हारना चाहता हूँ
बहुंत बार रोना चाहता हूँ 
पर हर बार तुम मुझे 
आगे बढ़ा देते हो 
हर बार जीतना सीखा देते हो
हर बार रोने से पहले हँसने का
मतलब समझा देते हो। …///////
( उनके लिए जिनसे मेरा आस्तित्व है )

कविता शीर्षक :- भाषा

लगातार अपनी भाषा से गुज़रना
इंसान का खुद से गुज़रना है
उसकी सभ्यता का मतलब है 
उसके कंठ से निकली ध्वनियों के
मूर्त रूप का इतिहास, जहाँ
इंसान मात्र फेफड़े के
फूलने-पचकने नहीं अपितु
इंसान होने से है, जिसमें
चिन्हों का शास्त्र बुद्ध होना नहीं
बल्कि होना है सारनाथ /
भाषा का लूटा जाना
इंसान को लूटा जाना है
क्योंकि यह धरती पर
आखिरी बचे हुए इंसान की शर्त है /
जहाँ आस-पास जीव तो होगें
इंसान संभव दुर्लभ /
************************************
भाषा में कबीर होना या तुलसी
यह इंसान होने जैसा है
भाषा में कालिदास होना या शेक्सपीयर
यह इंसानी होने जैसा है /

कविता शीर्षक :- हिंसा

हिंसा हुई तो कब हुई 
यह एक प्रश्न है ?
पूर्व या पश्चिम में !
रेत या जल में !
अस्तित्व की धुरता में !

मनुष्य की अभिलाषा का
शास्त्रीय मानदंड है हिंसा
जहाँ ज़रा सा पाने के बीच
अभिशप्त है बहुत कुछ खोना,
विकास की पहली स्थापना से
पहले भी होती थी हिंसा
और भोग के नवाचार में
कुत्सित विस्तार की पूंजी
बटोरना भी है हिंसा,
हिंसा का इतिहास
जन्मता है सृजन साथ
प्रश्न तब भी यही कि
हिंसा हुई तो कब हुई ?

कविता शीर्षक :- तन्हाई

कहीं दूर खुद से 
गुजारी हैं अब तक
तन्हाइयों में कई रातें
यह नहीं कि
निहारते रहे
चाँद और तारों को आसमाँ में
बल्कि दस बाई बारह की
छत पर घूमती तीन पंखुड़ियों को
जो कभी अलग नहीं दिखतीं
अक्सर ज़िन्दगी को
उन चारों कोनों से मिलाते
और ज़िन्दगी का एक घेरा
हैं बनाते मगर धुंधला
जैसे ज़िन्दगी हो हूबहू ऐसी
जैसे एक धुंधला वृत्त
जो बाहर से पूरा गोल
आता है नज़र मगर
इंतज़ार करने पर रह जाते हैं
तीन दिशा-सूचक
जैसे सांस लेने और छोड़ने के
बीच भी कुछ बचा रह जाता है
और शायद खोजता हूँ वहीँ
वह तमाम वजहें
जिससे "मैं" के रह सकूँ पास ////

कविता शीर्षक : संवाद

मैंने कहा प्यार 
उसने वासना
मैंने कहा ज़िन्दगी 
उसने मक्कारी
मैंने कहा अर्थ
उसने संक्रमण
मैंने कहा वादा
उसने टूटन
मैंने कहा सपने
उसने अँधेरे
मैंने कहा भविष्य
उसने दिशाहीन
मैंने कहा फिर क्या ?
उसने चुप्पी
मैंने कहा ठीक
उसने ख़याल
मैंने कहा क्यों ?
उसने अपरिभाषित
मैंने कहा द्व्न्द
उसने अस्पष्ट
मैंने कहा मार्ग
उसने स्वयं
मैंने कहा साथ
उसने चलो /
मुझे आज प्रेम मिला
हमेशा की तरह किसी 
कोने में छिपा हुआ नहीं 
बल्कि चार इंसानों के बीच 
जो थे काट रहे एक पेड़ 
जो शायद अपनी बीमारी से
कल रात की आंधी में
था गिर गया /
वो इस प्रेम भाव में
थे इतने मग्न कि
शाम को बनने वाले व्यंजन की खुश्बू से
उनको प्यास भी नहीं लग रही थी
दरअसल उनको जल्दी थी
क्योंकि उनको पता था कि
उनका प्रेम न जाने कब
बदल जाये वहशीपन में
उनको डर था कि उनकी प्यास
धीरे-धीरे बँटवारे की ओर
है बढ़ रही, जिस तेज़ी-तेज़ी से
चल रही है उनकी आरियाँ
उनका प्रेम बढ़ रहा है
कहीं शरीर के कोने में
ट्यूमर की तरह /